गुरुवार, 27 मई 2010

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

ब्लॉग से साभार

पाठक को पटखनी, सिंह इज किंग
Saturday, 27 September 2008 05:00 B4M भड़ास4मीडिया - प्रिंट मीडिया

भारतीय भाषा परिषद के नए निदेशक और संपादक की तलाश पूरी हो गई है। दौड़ में आगे चल रहे हरीश पाठक को पटखनी देते हुए विजय बहादुर सिंह 'किंग' बन गए है। वे 22 या 23 अक्टूबर को कोलकाता में कार्यभार ग्रहण करेंगे। इस संस्था की चर्चित पत्रिका वागर्थ में संपादक के रूप में विजय बहादुर सिंह का नाम जनवरी से जाएगा। दिसंबर तक कुसुम खेमानी और एकांत श्रीवास्तव ही इसके संपादक रहेंगे। कुसुम खेमानी भारतीय भाषा परिषद की सचिव हैं। वे इस संस्था की मालकिन भी हैं। साहित्यकार एकांत श्रीवास्तव केंद्र सरकार में सेवारत होने के नाते अंशकालिक संपादक के रूप में मैग्जीन से जुड़े हैं। एकांत ने वागर्थ से इस्तीफे का नोटिस दे रखा है। वे दिसंबर माह में कार्यमुक्त हो जाएंगे।
रवींद्र कालिया के ज्ञानपीठ में जाने के चलते भारतीय भाषा परिषद के निदेशक का पद खाली चल रहा था। तभी से परिषद का प्रवर मंडल नए निदेशक की तलाश में था। प्रवर मंडल में केदारनाथ सिंह, सुनील गंगोपाध्याय, इंदुनाथ चौधरी, डी जयकांतन जैसे दिग्गज साहित्यकार हैं। सूत्रों का कहना है कि प्रवर मंडल इस बार निदेशक और संपादक के रूप में अपेक्षाकृत युवा और तेज तर्रार व्यक्ति को लाना चाहता था, जो साहित्य-पत्रकारिता का लंबा अनुभव रखता हो। पहला नाम आया चित्रा मुदगल का। चित्रा ने अपनी विवशता और व्यस्तता बताकर निदेशक बनने से इनकार कर दिया। विवशता ये कि वे दिल्ली से बाहर नहीं जाना चाहती। उन्हें निदेशक के रूप में कोलकाता में काम करना पड़ता। व्यस्तता ये कि वो हिंदी की बड़ी लेखिका होने के साथ कई पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी निभा रहीं हैं, जिससे अलग हो पाना उनके लिए मुश्किल था। चित्रा मुदगल और परिषद के पूर्व निदेशक प्रभाकर श्रोत्रिय ने नए निदेशक और संपादक के लिए हरीश पाठक का नाम सुझाया। 30 वर्षों से साहित्य व पत्रकारिता में सक्रिय हरीश पाठक कई बड़े अखबारों और मैग्जीनों के संपादक रह चुके हैं। हरीश पाठक से कई दौर की बातचीत के बाद उनका निदेशक बनना तय माना जा रहा था। पर इसी बीच समीकरण बदलने लगे।
साहित्य के दिग्गजों की तरफ से नए मोहरे मैदान में लाए जाने लगे। विख्यात साहित्यकार ज्ञानरंजन की तरफ से रविभूषण और हिंदी के विद्वान कमला प्रसाद पांडेय व अन्य की ओर से विजय बहादुर सिंह का नाम नए निदेशक और संपादक के रूप में प्रवर मंडल के आगे पेश किया गया। बताते हैं कि वागर्थ के अंशकालिक संपादक के पद से इस्तीफा देने के बाद एकांत शांत नहीं बैठे। वे गुपचुप रूप से सक्रिय रहे। सूत्रों का कहना है कि परिषद की सचिव कुसुम खेमानी के करीबी एकांत ने अपने गुरु विजय बहादुर सिंह की पैरवी की। कुसुम खेमानी के चलते अंततः विजय बहादुर सिंह 'किंग' बन गए। प्रवर मंडल के ज्यादातर सदस्यों में हरीश पाठक के नाम पर बनी सहमति परवान न चढ़ सकी। सूत्रों का कहना है कि विजय बहादुर सिंह के अधीन ही एकांत श्रीवास्तव ने विदिशा से पीएचडी की है और एक तरह से उन्होंने अपने गुरु को निदेशक बनवाकर गुरु ऋण से उऋण होने का दायित्व निभाया।
परिषद की सचिव कुसुम खेमानी ने भड़ास4मीडिया को बताया कि विजय बहादुर जी जैसा प्रतिष्ठित विद्वान नए निदेशक के रूप में नियुक्त किए गए हैं। उनके नेतृत्व में वागर्थ में काम होगा। कुसुम ने कहा कि अभी तक निदेशक ही संपादक के रूप में काम देखते रहे हैं, इसलिए विजय बहादुर जी से आग्रह किया गया है कि वे भी इस परंपरा को आगे बढ़ाएं। वे जब कोलकाता आ जाएंगे तो जैसा भी कहेंगे, वैसा किया जाएगा।
साहित्यकार एकांत श्रीवास्तव ने भड़ास4मीडिया को बताया कि कुसुम जी और वे दिसंबर तक मैग्जीन के संपादक के रूप में काम देखेंगे। जनवरी से मैग्जीन के संपादक विजय बहादुर सिंह हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि यह केवल संयोग मात्र है कि जिन्हें निदेशक चुना गया, वे उनके गुरु रहे हैं। उन्होंने विजय बहादुर को निदेशक बनवाने में खुद की सक्रिय भूमिका से इनकार किया।
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हरीश पाठक का कहना है कि उन्हें विजय बहादुर सिंह को नया निदेशक और संपादक बनाए जाने के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है। यह पूछे जाने पर कि क्या आप निदेशक पद की दौड़ में थे और आपको पटखनी मिली, उनका कहना था कि इस बारे में उन्हें कुछ नहीं कहना। उन्हें लिखित रूप से अभी तक कुछ भी नहीं बताया गया है इसलिए वे पूरे मामले पर कुछ भी नहीं कहना चाहते।
नोट : यह साभार सामग्री है .

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

गालिब की शायरी

देह्र में नक़्श-ए-वफ़ा, वजहे तसल्ली न हुआहै ये वो लफ़्ज़ जो शर्मिन्दा-ए-मानी न हुआ इस दुनिया में वफ़ा एक बेमाअनी लफ़्ज़ है। वफ़ा के नक़्श से ज़माने में किसी को तसल्ली न हुई। वफ़ा एक ऎसा लफ़्ज़ है जिसे अपने मफ़हूम से कभी शर्म न आई।सबज़ा-ए-ख़त से तेरा काकुल-ए-सरकश न दबाये ज़मर्रुद की हरीफ़-ए-दम-ए-अफ़ई न हुआ ज़मर्रुद के सामने साँप अंधा हो जाता है लेकिन काकुल के ज़हरीले साँपों पर ज़मर्रुद यानी सबज़ा-ए-ख़त का भी कोई असर नहीं हुआ। मक़सद ये के सबज़ा-ए-ख़त के नमूदार होने पर भी तेरे बालों की ज़हर अफ़शानी का वही आलम है। मैंने चाहा था के अंदोहे-वफ़ा से छूटूँ वो सितमगर मेरे मरने पे भी राज़ी न हुआ मोहब्बत के ग़म से निजात हासिल करने के लिए मैंने मरना चाहा था लेकिन ज़ालिम महबूब मेरी मौत के लिए भी रज़ामन्द न हुआ। क्योंके मुझ जैसा वफ़ा करने वाला आशिक़ कोई और नज़र नहीं आ रहा था।दिल गुज़रगाहे ख़्याल-ए-म-ओ-साग़र ही सही गर नफ़स जादा-ए-सर मंज़िल-ए-तक़वा न हुआ मैं परहेज़गार और पारसा अगर नहीं हूँ, न सही। मेरा दिल जाम-ओ-शराब की गुज़रगाह तो है।हूँ तेरे वादा न करने पे भी राज़ी के कभी गोश मिन्नत कशे गुलबांग-ए-तसल्ली न हुआ मुझे ख़ुशी है के मेरे मेहबूब ने मिलने का वादा नहीं किया और मेरे कानों ने तसल्ली देने वाली ख़ुशगवार आवाज़ का एहसान नहीं उठाया। किससे मेहरूमिए क़िसमत की शिकायत कीजे हमने चाहा था के मर जाएँ सो वो भी न हुआ हमारी क़िस्मत भी अजीब है। हमें हर काम में मेहरूमी नसीब हो रही है, यहाँ तक के हमने मरना चाहा तो मर भी न सके, अब इस की शिकायत किससे करें। मर गया सदमा-ए-यक जुम्बिश-ए-लब से ग़ालिब नातवानी से हरीफ़-ए-दम-ए-ईसा न हुआ ईसा की तरह मेहबूब भी मेरे अन्दर नई ज़िन्दगी फूँकने आया था। लेकिन मेरी नातवानी का ये आलम था के मैंने होंटों को जुम्बिश ही दी थी के मैं उस जुम्बिश के सदमे से चल बसा और मैं मेहबूब के एहसान से बच गया।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कर्मवीर
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहींरह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहींकाम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहींभीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहींहो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भलेसब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।आज करना है जिसे करते उसे हैं आज हीसोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वहीमानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कहीजो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप हीभूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहींकौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहींकाम करने की जगह बातें बनाते हैं नहींआज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहींयत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहींबात है वह कौन जो होती नहीं उनके लियेवे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखरवे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहरगर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहरआग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपटये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहींभूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,बात इतनी है कि कोई पुल बना हैरक्त वर्षों से नसों में खौलता है,आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

दुष्यन्त कुमार की रचना

बुधवार, 12 अगस्त 2009

ग़ालिब की शायरी

कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये

वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब
वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये

सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र
ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये

वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह
वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये

सोमवार, 10 अगस्त 2009

लक



निर्माता : ढिलिन मेहता
निर्देशक : सोहम शाह
संगीत : सलीम-सुलैमान
कलाकार : संजय दत्त, इमरान खान, श्रुति हासन, मिथुन चक्रवर्ती, डैनी, रवि किशन, रति अग्निहोत्री, चित्रांशी
रेटिंग : 2/5


जिस तरह टीवी पर ‘बिग बॉस’ नुमा कुछ रियलिटी शो दिखाए जाते हैं, जिनमें लोगों को टॉस्क दिए जाते हैं और कौन शो में रहेगा कौन नहीं, इसका फैसला दर्शक करते हैं, उसी तरह का शो ‘लक’ फिल्म का मूसा भी आयोजित करता है। फर्क इतना है कि उसके खेल में भाग लेने वाले एक-एक कर मारे जाते हैं और जो भाग्यशाली होते हैं वो बच जाते हैं।

मूसा ‘लक’ का व्यापार करता है और भाग्यशाली लोगों को वो उठाकर अपने खेल का हिस्सा बना लेता है। लोग इस बात पर पैसा लगाते हैं कि कौन जिंदा बचेगा। मूसा लोगों की किस्मत से तरह-तरह से खेलता है।

हेलिकॉप्टर में वह सभी को बैठाकर हजारों फीट ऊपर ले जाता है और कूदने को कहता है। तीन पैराशूट ऐसे हैं, जो खुलेंगे नहीं। बदकिस्मत मारे जाते हैं और किस्मत वाले बच जाते हैं। जो बचे वे अगले राउंड में फिर जिंदगी और मौत के खेल में अपना लक आजमाते हैं।

निर्देशक और लेखक सोहम की कहानी का मूल विचार अच्छा है। उसमें नयापन है। वे टीवी पर दिखाने वाले शो को फिल्म में ले आए और उसे लार्जर देन लाइफ का रूप दे दिया, लेकिन कहानी का वे ठीक से विस्तार नहीं कर पाए वरना एक अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी।


PRमूसा (संजय दत्त) गैंबलिंग की दुनिया में बड़ा नाम है। लाखन (डैनी) उसके लिए दुनियाभर से भाग्यशाली लोगों को चुनने का काम करता है, जो उसके खेल का हिस्सा बनते हैं। सवाल यह है कि इसमें भाग्यशाली लोगों को चुनने की क्या जरूरत। किसी को भी चुना जा सकता है।

राम (इमरान खान), शॉर्टकट (चित्रांशी), मेजर (मिथुन चक्रवर्ती), एक कैदी (रवि किशन) और नताशा (श्रुति हासन) अलग-अलग कारणों से मूसा के खेल का हिस्सा हैं। ये कुछ लोगों के साथ अपना ‘लक’ आजमाते हैं।

ट्रेन सीक्वेंस के साथ फिल्म की बेहतरीन शुरुआत होती है। नए-नए किरदार कहानी में जुड़ते जाते हैं और कहानी आगे बढ़ती है। उम्मीद बँधती है कि एक अच्छी फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन जल्दी ही फिल्म अपनी दिशा खो बैठती है। मूसा इन लोगों के साथ जिंदगी और मौत के जो खेल खेलता है, वो इतने दिलचस्प नहीं हैं कि दर्शकों को बाँधकर रखें। एकरसता होने की वजह से फिल्म ठहरी हुई लगती है। रोमांस और इमोशन पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन वो जबरदस्ती ठूँसे हुए और बनावटी लगते हैं।

फिल्म का अंत भी हास्यास्पद है। मूसा की अंतिम चुनौती में विजयी होकर राम 20 करोड़ रुपए जीत जाता है। इसके बावजूद वो मूसा के साथ एक और खेल खेलता है। क्यों? इसका कोई जवाब नहीं है। दोनों एक-दूसरे को गोली मार देते हैं। इसके बाद अस्पताल वाले दृश्य देखकर लेखकों की अक्ल पर हँसी आती है। श्रुति हासन के डबल रोल वाली बात का भी कोई मतलब नहीं है।

निर्देशक सोहम का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश लुक देने में रहा और इसमें कुछ हद तक वे कामयाब रहे। आँख पर पट्टी बाँधे 6 ट्रेनों के बीच पटरी पार करना, पानी के अंदर शार्क वाले दृश्य और अंत में ट्रेन वाला दृश्य अच्छे बन पड़े हैं।

मूसा जैसा रोल निभाने में संजय दत्त माहिर हैं। एक बार फिर कामयाब रहे हैं। इमरान खान के चेहरे पर पूरी फिल्म में एक जैसे भाव रहे हैं। चाहे वो माँ से बात कर रहे हों या प्रेमिका से या अपने दुश्मन से। मिथुन चक्रवर्ती ठीक-ठाक रहे।


PRकलाकारों की भीड़ में रवि किशन और चित्रांशी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रहे। श्रुति हासन ने अपना करियर शुरू करने के लिए गलत फिल्म का चयन किया है। उन्हें ज्यादा अवसर नहीं मिले। अभिनय भी उनका औसत दर्जे का रहा। डैनी प्रभावी रहे।

तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है और स्टंट सीन उल्लेखनीय हैं। संगीतकार के रूप में सलीम-सुलैमान निराश करते हैं। कुल मिलाकर ‘लक’ में कुछ रोमांचक दृश्य हैं, थोड़ा नयापन है, लेकिन पूरी फिल्म के रूप में ये निराश करती है।

लव आजकल फ़िल्म

सैफ अली और दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म ‘लव आज कल’ का युवाओं में जबरदस्त क्रेज है। इस बात को ध्यान में रखते हुए फिल्म के निर्माता और हंगामा डिजिटल मीडिया ने ‘लव आज कल’ गेम जारी किया है। यह बड़ा ही आसान गेम है।

खेलने वाले को फिल्म के मुख्य किरदार सैफ अली या ऋषि कपूर में से एक को चुनना होता है। चुने हुए पात्र को कई चीजों को एकत्रित करना पड़ता है ताकि वो अपनी प्रेमिका दीपिका पादुकोण या नीतू सिंह को प्रभावित कर सके।

भारत में इंटरनेट, मोबाइल के बढ़ते हुए यूजर्स और सोशल नेटवर्किंग साइट्स की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए हंगामा डिजिटल मीडिया, तीन डिजिटल स्क्रीन्स (मोबाइल, इंटरनेट और डीटीएच) पर फिल्म को प्रमोट कर रही है।

इस बारे में हंगामा डिजिटल मीडिया के मैनेजिंग डॉयरेक्टर और सीईओ नीरज रॉय कहते हैं ‘भारत में इंटरनेट और मोबाइल का प्रयोग करने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। यही नहीं लोग चाहते हैं कि टीवी के जरिये भी उनकी इच्छा पूरी हो। इसको ध्यान में रखते हुए हंगामा फिल्म के मामले में उन्हें अपनी सेवाएँ देती हैं।‘

‘लव आज कल’ के निर्माता दिनेश विजन और सैफ अली का कहना है ‘हमारी फिल्म का प्रचार हम पूरी दुनिया में करना चाहते हैं और डिजिटल मीडिया ने हमारी इस ख्वाहिश को पूरा किया। आज का युवा तीन डि‍जिटल स्क्रीन्स में से कम से कम एक से तो जुड़ा हुआ है और इसका हमें पूरा लाभ मिलेगा क्योंकि हमारी फिल्म भी युवाओं के बारे में बात करती है।‘

‘लव आज कल’ प्यार के बारे में दो पीढि़यों के नजरिये को पेश करती है। इस थीम को सोशल नेटवर्किंग पर दर्शाया गया है। साथ ही ‘लव आज कल आइस ब्रेकर’ प्रतियोगिता का आयोजन भी प्रमुख सोशल नेटवर्किंग साइट पर किया जा रहा है।